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Past President's Message

अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मलेन के पूर्व अध्यक्ष

अखिल भारतीय मारवाड़ी सम्मलेन का मुख्य उद्देश्य है सम्पूर्ण मारवाड़ी समाज का सामूहिक संगठन, ऐसा संगठन जो जाति नवजीवन का संचार करने वाला हो, उसके कार्यकर्ता में उल्लास, सजीवता एवं कर्मोद्यम का भाव भरने वाला हो और जिसमे समाज की विभिन शाखाये सम्बद्ध हो, अपने जातीय हित और उससे भी वृहत्तर सम्पूर्ण देश के स्वार्थ सम्बन्ध रखने वाले समस्त प्रश्नो पर विचार करे और अपना कर्त्तव्य स्थिर करे |

स्वर्गीय रायबहादुर रामदेव चोखानी (1935 - 1938)

हम चाहें अथवा नहीं, सामाजिक समस्या का निकट भविष्य में सामना करना ही पड़ेगा | आज नहीं तो कल हमको एकत्र होकर अपने समाज की सम्पूर्ण संगठन की योजना और सामाजिक पहेलियों का निदान करना ही पड़ेगा |

स्वर्गीय पद्मपत सिंघानियां (1938 - 1940)

मैं समाज के लोगो से यह अनुरोध करता हूँ की समाजी अवसर पर वे अपने खर्च को वचित सीमा के बाहर न जाने दें | मेरा अनुरोध केवल उन्ही से नहीं जिनके पास धन का आभाव है वरन मैं उन लोगों से भी अनुरोध करता हूँ की जिनके पास प्रचुर धन हैं, क्योकि यह मानव स्वाभाव है की दूसरी श्रेणी की देखा देखी पहली श्रेणी के लोग अपनी परिमित आर्थिक अव्यवस्था के बावजूद दिखावे और आडम्बर में उनकी नक़ल करने को आतुर दिखाई देते है |

स्वर्गीय बद्रीदास जी गोयनका (1940 - 1941)

हमारे समाज में गमी, विवाह और छोटे - छोटे प्रसंगो में धन का अपव्यय करने की प्रक्रिया है, इससे सभी भाइयों को कष्ट तथा धन राशि और समय नष्ट होता है | अब युग, परिवर्तन का आ गया है | इसलिए इन अवसरों पर फ़िज़ूल खर्च नहीं करना चाहिए | आशा है यह प्रक्रिया शीघ्र ही बंद हो जाएगी |

स्वर्गीय रामदेव जी पोद्दार (1941 - 1943)

पृथक पृथक फिरको के जातीय समाजो के सम्मेलनों का जमाना अब ख़त्म हो चुका है | आपस की हमारी फूट पर हम हमने धर्म की छाप लगा रखी है और इस तरह के धार्मिक अंध विश्वास ने हमको स्वतंत्र से विचार करने योग्य भी नहीं रखा है | धर्मभीरु होना हम अपने लिए गौरव की बात समझते है | धार्मिक और सामाजिक रीति रिवाज़ो और रूढ़ियों एवं नाना प्रकार के बंधनो ने हमें मनुष्यता से गिरा दिया है |

स्वर्गीय रामगोपाल जी मोहता (1943 - 1947)

जो परिस्थियाँ हैं उनमे हमें यह देखना चाहिए की सम्मलेन हमारे समाज को क्या सहायता और सलाह दे सकता है | हम चाहे जहाँ भी हो, हमको वही टिके रहना चाहिए और संकट का सामना करने के लिए अपने प्राण की भी चिंता नहीं करनी चाहिए | इसी में हमारे समाज का कल्याण है |

स्वर्गीय बृजलाल बियाणी (1947 - 1954)

हमें बदलते हुए समय के साथ चलना होगा | आज के युग में पर्दा और दहेज़ जैसी कुप्रथाएं सहन नहीं की जा सकती | युवकों पर सामाजिक और मानवीय सुधार लाने का पूरा भर हैं | उन्हीं को समाज की विरासत संभालनी है और इस विरासत में उनको मिलेगी हमारी सम्पति और आज की समस्यांए | उन्हें समस्यांओ को अच्छी तरह से देखना तथा समझना है और उन्हें सलटाने के लिए कटिबद्ध हो जाना है |

स्वर्गीय सेठ गोविन्द दास मालपानी (1954 - 1962)

सम्मलेन ने समाज को सदैव यह परामर्श दिया है की जो भाई बहन भिन्न भिन्न प्रांतों या राज्यों में बसे है, उन्हें वहां का नागरिक माना जाये, उन्हें वहां के सामाजिक जीवन में पूरी तरह समरस हो जाना चाहिए | विवाहों में आज भी हम अपने भैभव का इतना प्रदर्शन करते है की दूसरों की दृष्टि में हम खटकने लगते है | हमें उतना ही प्रदर्शन करना उचित है जो दुसरो के लिए सरदर्द नहीं बने |

स्वर्गीय गजाधर सोमानी (1962 - 1966)

पर्दा प्रथा, स्त्रियों में शिक्षा का अभाव, मृत्यु भोज, दहेज़ आदि समाज में व्याप्त रूढ़ियों और समस्याओं को हल करने की दिशा में सम्मलेन ने काफी सफलता प्राप्त की है, लेकिन दहेज़ का बोझ समाज पर दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है और इसका बोझ विशेषकर मध्यम श्रेणी के लोगो पर असहनीय होता जा रहा है |

स्वर्गीय रामेश्वर लाल टांटिया (1966 - 1974)

दहेज़ प्रथा का विच्छेद करने के लिए आज तक जो कुछ प्रयास हुए, वे निष्फल ही रहें | कैसी गर्हित स्थिति हो गयी है की जो युवक उच्च शिक्षित है वे भी वधु के साथ दहेज़ के रूप में मानो अपनी आज और कल की समस्त इक्छाओं की पूर्ति के लिए धन लेने को मुहं बाएं खड़े रहते है | धनी लोगो ने इस समस्या को इतना बड़ा दिया है की मध्यवित्त और साधारण वर्ग के लोगो को कड़े आंसू पीकर भी असह्य बोझ झेलना पड़ता है |

स्वर्गीय भंवरमल सिंघी (1974 - 1976, 1976 - 1979)

अधिक धन का होना पाप नहीं है किन्तु उसका सदुपयोग नहीं करना पाप है हम अपने धन का प्रयोग झूठे दिखावे व प्रदर्शन में कर उसका अप्व्यय कर रहे है | जो को समाज के हित में घातक है | इसको प्रवृति पर अंकुश जरुरी है, अन्यथा आने वाले समय में हमे इसके दुष्परिणाम देखने को मिलेंगे |

स्वर्गीय मेजर राम प्रसाद पोद्दार (1979 - 1982)

यदि हमे अपने युवकों के ऊर्जा का लाभ लेना है तो हमे अपनी सार्वजनिक संस्थाओं और क्रिया कलापों को आधुनिकता का जामा पहनना होगा, जिनसे हमारा युवक उनसे जुड़ सके और अपना वर्चस्व दिखा सके और पिछले बीते युग से कही शक्तिशाली व प्रभावोत्पाक रूप से नव निर्माण व सामाजिक सुधारो की गंगा बहा सके |

स्वर्गीय नंदकिशोर जालान (1982 - 1986, 1993 - 2001)

फ़िज़ूलख़र्ची और दहेज़ की समस्या विवाह-संस्कार आदि के कार्यक्रमों में दानवी रूप लेती जा रही है | हमे स्वयं को आत्म चिंतन करके इन सामाजिक कुरूतियों को दूर करना चाहिए एवं अन्य समाज के समक्ष उदहारण रखें चाहिए | तभी निम्न और माध्यम वर्ग का मारवाड़ी भाई अपनी प्रतिष्ठा बचा सकेगा |

स्वर्गीय हरिशंकर सिंघानियां (1986 - 1989)

जिस दिन समाज का कार्यकर्ता, समाज के सभी वर्गो के भाई बहन स्थान स्थान पर सैकड़ो हज़ारों की संख्या में सामाजिक बुराइयों और सामाजिक अन्याय के विरुद्ध प्रांतीयता और संकीरता के विरुद्ध अनवरत आंदोलन प्रारम्भ करेंगे, उस दिन रहेंगे | समस्त भारतीय समाज के लोग उनके साथ आ मिलेंगे और उस दिन समाज अपनी सही छवि स्थापित कर सकेगा |

स्वर्गीय रामकृष्ण सरावगी (1989 - 1989)

कोई भी काम समय पर न करने तथा समय की सही योजना न बनाने परिपाटी का ही परिणाम है की आज की युवा पीढ़ी सिद्धि प्राप्त नहीं कर पा रही है | हम देरी को इंडियन टाइम्स कहकर समय उपहास करते है | आज समय का यही तकाजा है की हम समय के मूल्य को पहचाने, उसका सद्प्रयोग जातीय तथा राष्ट्रीय उत्थान में करें |

स्वर्गीय. हनुमान प्रसाद सरावगी (1989 - 1993)

किसी भी समाज की मातृभाषा का प्रश्न उसकी अस्मिता से जुड़ा होता है। राजस्थानी भाषा के अस्तित्व की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि हम प्रत्येक स्तर से उसे प्रोत्साहन दें। मेरा तात्पर्य मात्र धन की मदद से नहीं, बल्कि अपने घरों में, हमभाषी लोगों के साथ अपनी भाषा के प्रयोग से भी है।... सम्मेलन वर्तमान में विषम परिस्थितियों से जूझ रहा है। इसे पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिए सबसे आवश्यक है संगठन की सुदृढ़ता। प्रत्येक प्रांत, प्रमंडल, जिला और गाँव - गाँव को सम्मेलन से जोड़ना हमारी पहली प्राथमिकता है।

स्वर्गीय मोहनलाल तुलस्यान (2001 - 2004, 2004 - 2006)

हमारे समाज धन के बढ़ते प्रभुत्व ने बुराइयों को जन्म दिया है | हमें सामाजिक व्यवस्था को सुधारना होगा ताकि समाज में बढ़ रही ऐसी कुप्रवृतियां रोकी जा सके | सम्मलेन का काम सामाजिक बुराइयों पर लोगो की सोच में वैचारिक परिवर्तन लाना है | सिर्फ मारवाड़ी समाज ही ऐसा समाज है जहा सम्मलेन जैसी संस्था है स्वयं में सुधार का प्रयत्न करती हैं |

श्री सीताराम शर्मा (2006 - 2008)

आज हमारे समाज में चिंता है टूटते परिवारों की, बिखरते रिश्तो की, तलाक़ और फ़िज़ूलखर्जी की, सामाजिक समारोह में मद्यपान की, गिरते नैतिक और सामाजिक मूल्यों की, बढ़ते आडम्बर दिखाओं की | सम्मलेन इस पर समाज में जाग्रति लेन का निरंतर प्रयास कर रहा है | संगठन को सांगठनिक रूप से और मज़बूती प्रदान करने हेतु प्रत्येक मारवाड़ी परिवार से एक व्यक्ति को सम्मलेन से जुड़ना चाहिए |

श्री नन्दलाल रूंगटा (2008 - 2010)

पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से युवा वर्ग की सोच कि 'मुझे क्या लेना-देना?' या 'मुझे इससे क्या लाभ' में बदलाव आवश्यक है। मारवाड़ी समाज के नवसृजन एवं विकासोन्मुखी कार्यक्रमों में युवाशक्ति को और अधिक दायित्व लेना जरूरी है। अवांछित एवं अस्वस्थ प्रतिस्पद्र्धा के कारण न केवल फिजूलखर्ची को बढ़ावा मिल रहा है। अपितु आडम्बर एवं मिथ्या-प्रदर्शन से हमारा समाज इतर समाजों की आलोचना का हास्यास्पद पात्र बन गया है। देश की प्रगति के लिये हमें राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए। अपने अधिकारों का उचित प्रयोग करते हुए सही नेता का चयन करना चाहिए।

डॉ. हरिप्रसाद कनोडिया (2010 - 2013)

सम्मेलन प्रांतों में बसता है। सम्मेलन के संगठन को अपेक्षित विस्तार देने के लिए आवश्यक है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पदाधिकारी प्रांतीय मुख्यालयों के साथ-साथ, नगर-ग्राम शाखाओं तक का यथासम्भव दौरा करें, हर स्तर पर विचारों का परस्पर आदान-प्रदान हो, स्थानीय स्तर पर समाज की समस्याओं के विषय में जानकारी हो, और समाज के जन-जन को सम्मेलन के साथ जोड़ने का हर प्रयत्न हो। यह सम्मेलन के संगठन-विस्तार, सिद्धांतों एवं विचारों के प्रसार तथा हमारी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए रामबाण सिद्ध होगा। हमारे कार्यक्रमों की सफलता के लिए महिला एवं युवा अनिवार्य कड़ियाँ हैं। इनकी सहभागिता से ही हम अपने कार्यक्रमों को गति दे पायेंगे और इच्छित परिणाम प्राप्त कर सकेंगे। सम्मेलन के कार्यक्रमों में इनकी सक्रिय भागीदारी अनिवार्य है और इसके लिए प्रयत्न करना हमारा कर्त्तव्य |

श्री रामअवतार पोद्दार (2013 - 2016)

यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि हमारी युवा पीढ़ी अत्यंत मेधावी एवं परिश्रमी हैं और अपने पारम्परिक उद्योग-व्यापार से आगे बढ़कर शिक्षा, प्रतियोगिता परीक्षाओं, खेल, मनोरंजन सहित हरेक क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों से समाज का मान बढ़ा रही है। तथापि, संस्कारों का ह्यास, बुजुर्गों का घटता सम्मान, फिजूलखर्ची-आडम्बर, दाम्पत्य संबंधों में असहिष्णुता, नशे की बढ़ती प्रवृत्ति, राजनैतिक सक्रियता एवं चेतना की कमी जैसे विषयों पर हमारे युवक-युवतियों, तरुण-तरुणियों को सचेत रहने की आवश्यकता है। सामाजिक संगठन की अनिवार्यता को भी समझना है क्योंकि संगठित समाज की आवाज ही सशक्त हो सकती है।

श्री प्रह्लाद राय अगरवाला (2016 - 2018)

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